90 के दशक की शुरुआत में भारत का लोकतंत्र एक ऐसे मोड़ पर था, जहां चुनावी प्रक्रिया को अक्सर कमजोर, अपारदर्शी और सत्ता के इशारों पर चलने वाला माना जाता था। लेकिन तभी मंच पर आए टी.एन. शेषन, भारत के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त। वह सिर्फ एक सख्त अफसर नहीं थे, बल्कि एक ऐसी शख्सियत, जिसने चुनाव आयोग को “सिस्टम की शाखा” से “लोकतंत्र का प्रहरी” बना दिया।
उनकी एक ही लाइन – “I eat politicians for breakfast” – ने देशभर में यह संदेश दे दिया कि अब खेल के नियम बदल चुके हैं। यह लेख बताता है कि कैसे शेषन ने ईमानदारी, दृढ़ता और नियमों के प्रति अटूट निष्ठा से भारतीय चुनाव प्रणाली को बदल दिया।
अफसर से “संविधान के प्रहरी” तक
टी.एन. शेषन ने अपने करियर की शुरुआत एक साधारण आईएएस अधिकारी की तरह की थी। लेकिन शुरुआत से ही उनका अंदाज अलग था।
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मद्रास ट्रांसपोर्ट डायरेक्टर रहते हुए उन्होंने ड्राइवरों की चुनौतियों को समझने के लिए खुद इंजन खोलना–जोड़ना और बस चलाना सीखा।
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मदुरई कलेक्टर रहते हुए उन्होंने शेख अब्दुल्ला की चिट्ठी भी संविधान के नियमों के तहत खोली, चाहे सामने “राष्ट्रपति” का नाम ही क्यों न लिखा हो।
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कैबिनेट सचिव तक पहुंचे, लेकिन नेताओं को “यस सर” कहने से हमेशा इंकार किया।
यह रवैया ही बाद में उन्हें देश का सबसे स्वतंत्र और बेखौफ मुख्य चुनाव आयुक्त बनाने वाला था।
चुनाव आयोग का कायाकल्प
1990 में जब उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया, उस वक्त आयोग को सरकार का “सब-ऑफिस” माना जाता था। शेषन ने पहले ही दिन स्पष्ट कर दिया कि चुनाव आयोग का धर्म सिर्फ संविधान है, न कि सत्ता।
उनके प्रमुख कदम:
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मतदाता पहचान पत्र (Voter ID Card)
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फर्जी वोटिंग रोकने के लिए उन्होंने वोटर आईडी कार्ड को अनिवार्य किया।
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भारी विरोध के बावजूद साफ कहा: “31 दिसंबर 1994 तक कार्ड नहीं बने तो चुनाव ही नहीं होंगे।”
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मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट (MCC)
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चुनाव प्रचार के नियमों को सख्ती से लागू किया।
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चाहे केंद्रीय मंत्री हों या मुख्यमंत्री, किसी को भी छूट नहीं मिली।
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राजनीतिक हस्तक्षेप का विरोध
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विधि मंत्रालय के मंत्री को लिखित माफी मंगवाकर यह साबित किया कि चुनाव आयोग सरकार के अधीन नहीं है।
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चुनावी हिंसा पर रोक
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बिहार और यूपी जैसे राज्यों में पहली बार चरणबद्ध और कड़ी सुरक्षा के बीच चुनाव करवाए।
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बूथ कैप्चरिंग जैसी प्रथाओं पर कड़ी चोट की।
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नेताओं और अफसरशाही से टकराव
शेषन ने साफ कर दिया कि कानून सब पर समान रूप से लागू होगा।
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पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने उन्हें “पागल कुत्ता” कहा।
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कई अफसरों को “पॉलिश्ड कॉल गर्ल्स” तक कह दिया क्योंकि वे नेताओं के आगे झुक जाते थे।
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यूपी में मंत्री कल्पनाथ राय का भाषण बीच में ही बंद करवाया और धमकी दी कि सीट का चुनाव रद्द कर देंगे।
यह सब अभूतपूर्व था – और यहीं से भारतीय जनता ने पहली बार महसूस किया कि चुनाव आयोग वास्तव में जनता का प्रहरी है।
विरासत
टी.एन. शेषन ने 1990 से 1996 तक का कार्यकाल पूरा किया। यह पहला मौका था जब किसी सीईसी ने पूरे छह साल तक अपनी अवधि निभाई।
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उनके कार्यकाल ने चुनाव आयोग को एक निष्क्रिय संस्था से भारत के सबसे ताकतवर संवैधानिक अंग में बदल दिया।
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उन्हें 1996 में रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड मिला।
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रिटायरमेंट के बाद भले ही राजनीति में कदम रखा, लेकिन असली पहचान लोकतंत्र को मजबूत करने की ही रही।