कर्पूरी ठाकुर 1967 फैसला

1967 में कर्पूरी ठाकुर का वो फैसला, जिसने लाखों छात्रों की ज़िंदगी बदल दी

साल 1967 भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए एक अहम मोड़ साबित हुआ।
आज़ादी के दो दशक बाद देश में IIT, AIIMS और कई विश्वविद्यालय स्थापित हो चुके थे, लेकिन उच्च शिक्षा अभी भी शहरी और अंग्रेजी जानने वाले वर्ग तक सीमित थी।
इसी दौर में बिहार के शिक्षा मंत्री कर्पूरी ठाकुर ने एक ऐसा साहसी फैसला लिया, जिसने हजारों छात्रों का भविष्य बदल दिया — मैट्रिक में अंग्रेजी पास करने की अनिवार्यता समाप्त करना


पृष्ठभूमि: अंग्रेजी का प्रभुत्व और ग्रामीण चुनौतियां

  • ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजी प्रशासन, शिक्षा और नौकरियों की भाषा बन गई थी।

  • ग्रामीण इलाकों में अंग्रेजी शिक्षा की पहुंच बेहद सीमित थी।

  • 1967 से पहले बिहार बोर्ड की 10वीं परीक्षा में अंग्रेजी पास करना अनिवार्य था।

  • अधिकांश छात्र गणित और विज्ञान में अच्छे अंक लाते, लेकिन अंग्रेजी में फेल होने से पूरी परीक्षा में असफल हो जाते।

  • इस वजह से उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों के दरवाज़े बंद हो जाते थे।


कर्पूरी ठाकुर का विश्लेषण और साहसी कदम

बैठक में रखी गई बात

1967 में केंद्रीय शिक्षा मंत्री त्रिगुण सेन की शिक्षा नीति बैठक में कर्पूरी ठाकुर ने तर्क दिया:

  • शिक्षा का लोकतांत्रिकरण जरूरी है।

  • अंग्रेजी अनिवार्यता ग्रामीण और पिछड़े वर्गों को शिक्षा से दूर कर रही है।

  • भाषा ज्ञान का विकल्प नहीं, सिर्फ एक माध्यम है

फैसला

मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा से चर्चा के बाद निर्णय हुआ:

  • मैट्रिक में अंग्रेजी पास करना अब अनिवार्य नहीं रहेगा

  • परीक्षा में बैठना जरूरी होगा, लेकिन पास होना जरूरी नहीं।

  • उद्देश्य — सभी वर्गों के लिए उच्च शिक्षा के दरवाज़े खोलना


फैसले के नतीजे

त्वरित प्रभाव

  • अगले साल ही मैट्रिक पास होने की दर लगभग दोगुनी हो गई।

  • इसे बिहार में “कर्पूरी डिवीजन” नाम दिया गया।

  • ग्रामीण और पिछड़े वर्ग के छात्र बड़ी संख्या में कॉलेज तक पहुंचे।

मुख्य लाभ

  1. OBC और दलित छात्रों की संख्या बढ़ी — पटना विश्वविद्यालय जैसे बड़े संस्थानों में।

  2. उच्च जाति के ग्रामीण छात्रों को भी फायदा — जो अंग्रेजी नहीं जानते थे।

  3. सरकारी नौकरियों में अवसर — कई पदों पर न्यूनतम योग्यता 10वीं पास थी।


आलोचना और विवाद

  • रूलिंग क्लास और सामंती वर्ग ने इसे शिक्षा पर हमला बताया।

  • आरोप लगा कि यह मानक गिराने वाला निर्णय है।

  • एक प्रोफेसर ने जातिगत टिप्पणी करते हुए कहा कि कर्पूरी ठाकुर को अंग्रेजी नहीं आती, इसलिए हटाया —
    जवाब में ठाकुर ने पूरा भाषण कठिन अंग्रेजी शब्दों के साथ दिया, साबित किया कि उन्हें अंग्रेजी अच्छी तरह आती है


डॉ. राम मनोहर लोहिया का समर्थन

  • लोहिया लंबे समय से अंग्रेजी अनिवार्यता के विरोधी थे।

  • उनका मानना था:

    • लोकतंत्र तभी सफल होगा जब जनता की भाषा में काम होगा

    • विदेशी भाषा को इतना महत्व नहीं देना चाहिए कि वह अवसरों की बाधा बन जाए।


बाद की राजनीति: लालू प्रसाद और अंग्रेजी की बहस

  • लालू यादव ने मुख्यमंत्री बनने पर अंग्रेजी अनिवार्य करने की कोशिश की।

  • उनका तर्क — पिछड़ा वर्ग अंग्रेजी के बिना तकनीक और प्रतियोगी परीक्षाओं में पीछे रह जाएगा।

  • जनता दल और बीजेपी ने इसका कड़ा विरोध किया।

  • अंततः लालू को पीछे हटना पड़ा।


आज का परिदृश्य

  • आज भी बिहार बोर्ड में अंग्रेजी पास करना अनिवार्य नहीं है

  • शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है:

    • अंग्रेजी में दुनिया का बड़ा ज्ञान भंडार है।

    • लेकिन मातृभाषा में मजबूत आधार बनाकर भी विकास संभव है।

    • यह मानसिक हीनभावना तोड़ने का समय है।


निष्कर्ष

कर्पूरी ठाकुर का 1967 का फैसला सिर्फ एक शिक्षा नीति परिवर्तन नहीं था,
बल्कि समान अवसर और सामाजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक कदम था।
इसने हजारों छात्रों को कॉलेज और नौकरियों तक पहुंचाया,
और साबित किया कि भाषा बाधा नहीं, पुल बन सकती है।


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