उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई दिग्गज नेताओं ने अपनी पहचान बनाई, लेकिन कुछ नाम ऐसे हैं जो केवल राजनीति नहीं, बल्कि अपराध की दुनिया से भी जुड़े रहे। उन्हीं में से एक नाम है हरिशंकर तिवारी का। चिल्लूपर से विधायक रहे इस ब्राह्मण नेता की कहानी महज़ चुनाव जीतने की नहीं, बल्कि पूर्वांचल में राजनीति और अपराध के गठजोड़ की सबसे ज्वलंत मिसाल है।
1985 का चुनाव: जब जेल से लड़ा गया विधानसभा चुनाव
मार्च 1985 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। गोरखपुर की चिल्लूपर विधानसभा सीट पर सबकी नजर थी, क्योंकि वहां से एक ऐसा उम्मीदवार मैदान में था, जो राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत जेल में बंद था। उस उम्मीदवार पर हत्या, किडनैपिंग और रंगदारी जैसे कई संगीन मुकदमे दर्ज थे।
नाम था — हरिशंकर तिवारी।
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1984 में महाराजगंज से लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्होंने चिल्लूपर से विधानसभा चुनाव लड़ा।
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जेल में रहते हुए चुनाव जीतकर उन्होंने इतिहास रच दिया।
ठाकुर बनाम ब्राह्मण: गोरखपुर की जातीय राजनीति की शुरुआत
1970 के दशक में गोरखपुर की राजनीति ठाकुरों के कब्जे में थी। विश्वविद्यालय से लेकर मठ और सत्ता तक ठाकुर नेता सक्रिय थे। रविंद्र सिंह जैसे छात्र नेता गोरखपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष बन चुके थे, जिससे पूरे क्षेत्र में ठाकुरों की पकड़ मजबूत हो गई थी।
लेकिन इसी दौर में गोरखपुर में एक ब्राह्मण नेता का उदय हुआ — हरिशंकर तिवारी।
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कांग्रेस सरकार ने ब्राह्मणों को ताकत देने की कोशिश में तिवारी को सहारा दिया।
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तिवारी स्थानीय झगड़े सुलझाने लगे और लोगों में उनकी पकड़ बढ़ने लगी।
यहीं से गोरखपुर में ठाकुर बनाम ब्राह्मण की जंग शुरू हुई, जो जल्द ही खूनी संघर्ष में तब्दील हो गई।
वीरेंद्र शाही vs. हरिशंकर तिवारी: जब गोरखपुर बना गैंगवार का अखाड़ा
रविंद्र सिंह की हत्या (1978) के बाद ठाकुरों की तरफ से नया चेहरा आया — वीरेंद्र प्रताप शाही। वही वीरेंद्र शाही जो हरिशंकर तिवारी के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी बने।
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दोनों के बीच गैंगवार शुरू हो गई।
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हर रोज़ हत्या, गोलीबारी और रेलवे ठेकों के लिए टकराव होने लगा।
गोरखपुर की गलियों में यह लड़ाई हाता बनाम शक्ति सदन के नाम से मशहूर हो गई।
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हाता: हरिशंकर तिवारी का आवास
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शक्ति सदन: वीरेंद्र शाही का ठिकाना
जेल से जीत और राजनीतिक उदय
जब नारायण दत्त तिवारी की सरकार में हरिशंकर तिवारी पर रासुका लगाया गया, तब भी वे नहीं रुके।
1985 में जेल से ही चुनाव लड़ा और जीत गए।
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कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलापति त्रिपाठी भी उन्हें समर्थन देने गोरखपुर आए।
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गिरफ्तार किए जाने पर पूरे शहर में “जय शंकर जय हरिशंकर” के नारे गूंज उठे।
तिवारी धीरे-धीरे कांग्रेस का अहम चेहरा बन गए और 1989 में पार्टी ने उन्हें टिकट दिया।
इसके बाद तो वो लगातार 2007 तक विधायक रहे, चाहे सरकार किसी की भी हो —
बीजेपी, सपा या बसपा।
हर पार्टी के लिए उपयोगी
हरिशंकर तिवारी की खासियत ये थी कि वे हर दल के लिए जरूरी बन गए। उन्होंने हर सरकार में मंत्री पद भी संभाला:
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कल्याण सिंह (बीजेपी)
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राजनाथ सिंह (बीजेपी)
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राम प्रकाश गुप्ता (बीजेपी)
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मुलायम सिंह यादव (सपा)
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मायावती (बसपा)
श्रीप्रकाश शुक्ला की एंट्री और गैंगवार का नया अध्याय
1990 के दशक में पूर्वांचल में एक और खतरनाक नाम उभरा — श्रीप्रकाश शुक्ला।
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उसी चिल्लूपर क्षेत्र के ममखोर गांव से था।
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उसने 1997 में लखनऊ में वीरेंद्र शाही की AK-47 से सरेआम हत्या कर दी।
माना जाता है कि इस हत्या के पीछे भी हरिशंकर तिवारी की भूमिका थी।
लेकिन हालात ने करवट ली। श्रीप्रकाश शुक्ला ने तिवारी को भी मारने की कसम खा ली।
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शुक्ला ने पहले हत्या के बाद हरिशंकर तिवारी से मदद लेकर बैंकॉक भागा था।
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लेकिन बाद में चिल्लूपर से चुनाव लड़ना चाहता था — जो तिवारी का गढ़ था।
22 सितंबर 1998 को गाजियाबाद में श्रीप्रकाश शुक्ला का एनकाउंटर कर दिया गया।
तिवारी की राजनीतिक सत्ता बरकरार रही।
तिवारी परिवार की विरासत
2007 के बाद हरिशंकर तिवारी ने चुनावी राजनीति से दूरी बना ली।
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उनके बेटे विनय शंकर तिवारी सांसद बने
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दूसरा बेटा अमान शंकर तिवारी विधायक बना
2023 में हरिशंकर तिवारी का निधन हो गया, लेकिन उनका नाम अब भी राजनीति के अपराधीकरण की मिसाल के रूप में लिया जाता है।
अमरमणि त्रिपाठी से लेकर मुख्तार अंसारी तक: तिवारी की छत्रछाया
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अमरमणि त्रिपाठी, मधुमिता शुक्ला हत्याकांड के दोषी, तिवारी के करीबी माने जाते थे।
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1989 के चुनाव में तिवारी के समर्थन से वीरेंद्र शाही को लक्ष्मीपुर सीट से हराकर राजनीति से बाहर किया गया।
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मुख्तार अंसारी और बृजेश सिंह जैसे माफिया नेताओं के अपराध की शुरुआत भी तिवारी के सत्ता संतुलन से जुड़ी रही।
निष्कर्ष: हरिशंकर तिवारी – एक नाम, एक युग
हरिशंकर तिवारी का सफर सिर्फ एक राजनेता का नहीं, बल्कि एक ऐसे युग का है जिसमें अपराध और राजनीति एक-दूसरे में घुलते-मिलते गए। चाहे ठाकुर-ब्राह्मण की लड़ाई हो, गैंगवार हो या सत्ता के समीकरण — तिवारी हमेशा केंद्र में रहे।
उनकी कहानी बताती है कि राजनीति जब अपराध को शरण देती है, तब लोकतंत्र किस तरह प्रभावित होता है।