1960 के दशक का बिहार भारतीय राजनीति के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। यह वह दौर था जब देश में कांग्रेस की पकड़ मजबूत थी, लेकिन बिहार में राजनीतिक हवा बदलने लगी थी। डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए रणनीतियां रच रहे थे। यह लेख उसी दशक की अहम घटनाओं, गठबंधनों, विश्वासघातों और उभरती विचारधाराओं की कहानी कहता है।
इंदिरा गांधी बनाम समाजवादी मोर्चा: ताजपुर की ऐतिहासिक रैली
1967 में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले माहौल गर्म था। इंदिरा गांधी ने ताजपुर की रैली में खुद पहुंचकर कर्पूरी ठाकुर और लोहिया को चुनौती दी। लेकिन भीड़ और जोश देखकर इंदिरा गांधी को यह अहसास हो गया कि इस बार कांग्रेस की राह आसान नहीं है।
1967: पहली गैर कांग्रेसी सरकार और लोहिया की जीत
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नतीजे: कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी, पर बहुमत से दूर।
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गठबंधन: संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा), वामपंथी दल और जनसंघ ने मिलकर संयुक्त विधायक दल बनाया।
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मुख्यमंत्री पद का ट्विस्ट: जब सबको लगा कि कर्पूरी ठाकुर सीएम बनेंगे, तब जनक्रांति दल के कामाख्या नारायण सिंह ने महामाया प्रसाद सिन्हा का नाम आगे बढ़ा दिया।
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परिणाम: कर्पूरी को डिप्टी सीएम बनना पड़ा।
लोहिया का क्रांतिकारी कदम: संघ के साथ मंच साझा
लोहिया ने पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर से हाथ मिलाया। जनसंघ जैसे पार्टी को सामाजिक रूप से मुख्यधारा में लाने का बीज यहीं पड़ा, जिसने आगे चलकर बीजेपी को राष्ट्रीय शक्ति बनने में मदद की।
नक्सल आंदोलन की शुरुआत: भोजपुर में संघर्ष की आग
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1967: नक्सलबाड़ी की गूंज बिहार के भोजपुर तक पहुंची।
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परिणाम: भूमिहीन और दलित वर्ग के लिए राजनीतिक चेतना का नया द्वार खुला।
श्रीकृष्ण सिन्हा के बाद की लड़ाई: कांग्रेस में खेमेबाजी और ‘कामराज योजना’
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1961: सीएम श्रीकृष्ण सिन्हा का निधन।
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1963: कामराज प्लान लागू – कई मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री पद से हटाए गए।
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बिहार में असर: विनोदानंद झा को हटाकर के.बी. सहाय को सीएम बनाया गया।
के.बी. सहाय और कांग्रेस की पतनगाथा
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भ्रष्टाचार के आरोपों ने सहाय सरकार को कमजोर कर दिया।
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खुद के पोते के नारे – “केबी सहाय चोर है” – से संकेत मिल चुका था कि जनता का मूड बदल चुका है।
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छात्रों की हत्या, पुलिस फायरिंग, और आंदोलनकारियों पर दमन ने कांग्रेस की साख और गिरा दी।
कर्पूरी ठाकुर का क्रांतिकारी फैसला
डिप्टी सीएम बनने के बावजूद, कर्पूरी ठाकुर ने शिक्षा मंत्री रहते हुए ऐतिहासिक निर्णय लिए:
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छात्रों की स्कूल फीस माफ की।
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मैट्रिक में अंग्रेजी को अनिवार्य विषय से हटाया।
यह फैसला दलित और पिछड़े वर्ग के लिए शिक्षा के दरवाजे खोलने वाला साबित हुआ।
राजनीतिक उठापटक और सत्ता का अस्थिर खेल
सतीश प्रसाद सिंह बने 5 दिन के सीएम:
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महामाया सरकार गिरी।
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कांग्रेस का समर्थन लेकर सतीश सिंह सीएम बने, लेकिन योजना बी.पी. मंडल को सीएम बनाने की थी।
बी.पी. मंडल की सरकार:
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मंडल 5 फरवरी 1968 को सीएम बने।
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कांग्रेस की गुटबाजी ने सरकार गिरा दी।
भोला पासवान शास्त्री: पहले दलित सीएम, पर सिर्फ 12 दिन के लिए
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जनसंघ ने समर्थन वापस लिया।
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सरकार गिर गई और राष्ट्रपति शासन लगा।
1969: कांग्रेस की वापसी, लेकिन अस्थिरता बरकरार
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चुनाव में कांग्रेस को 118 सीटें मिलीं, जो बहुमत से कम थीं।
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हरिहर सिंह ने सरकार बनाई लेकिन गुटबाजी से 4 महीने में गिर गई।
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भोला पासवान फिर सीएम बने लेकिन इस बार भी सिर्फ 12 दिन टिके।
निष्कर्ष: 60 का दशक – कांग्रेस के पतन और अस्थिरता की शुरुआत
यह दशक बिहार में कांग्रेस की एकछत्र सत्ता के पतन की शुरुआत थी। राम मनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसी मोर्चा बनाकर यह दिखा दिया कि सत्ता बदली जा सकती है। लेकिन गठबंधनों की अस्थिरता, विचारधाराओं का टकराव और जातीय समीकरणों ने इस परिवर्तन को स्थायित्व नहीं दिया।
मुख्य बिंदु (Takeaways):
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1967 में बिहार में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी।
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कर्पूरी ठाकुर के शिक्षा सुधारों ने सामाजिक परिवर्तन की नींव रखी।
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मंडल और पासवान जैसे नेताओं के उभार ने राजनीति को नई दिशा दी।
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लोहिया का साहसिक कदम – RSS और वामपंथ को एक मंच पर लाना – इतिहास में मिसाल बन गया।
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राजनीतिक अस्थिरता के बीज इसी दशक में बोए गए।