पाकिस्तान के कई स्कूलों में आज भी बच्चों को एक ऐसा इतिहास पढ़ाया जाता है जो तथ्यों से ज्यादा राजनीतिक एजेंडे पर आधारित है। खासकर 1857 की क्रांति, आज़ादी की लड़ाई और बंटवारे के घटनाक्रम को इस तरह गढ़ा गया है कि वह “दो कौमी नजरिया” (Two Nation Theory) को सही साबित कर सके।
1857 की क्रांति को कैसे बनाया गया ‘मुस्लिम जिहाद’
पाकिस्तान की नौवीं कक्षा की पाकिस्तान स्टडीज़ की किताब (पंजाब टेक्स्टबुक बोर्ड) के मुताबिक, 1857 की क्रांति में केवल मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, जबकि हिंदुओं को “गद्दार” बताया गया।
लेकिन असली इतिहास कुछ और कहता है—
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29 मार्च 1857 को बैरकपुर में पहली गोली चलाने वाले मंगल पांडे हिंदू थे।
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10 मई 1857 की मेरठ बगावत में हिंदू और मुसलमान दोनों ने मिलकर “मारो फिरंगी को” का नारा लगाया।
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सभी ने आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र को अपना नेता माना।
इंडियन नेशनल कांग्रेस और मुस्लिम लीग की कहानी
पाकिस्तानी किताबों में यह नैरेटिव है कि कांग्रेस ने मुसलमानों के हित में कभी काम नहीं किया।
लेकिन सच्चाई—
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तीसरे कांग्रेस अध्यक्ष बदरुद्दीन तैयबजी मुसलमान थे।
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1916 का लखनऊ पैक्ट हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल था, जिसमें कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की अलग निर्वाचक मंडल (Separate Electorates) की मांग मान ली थी।
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1937 में कांग्रेस की जीत और मुस्लिम लीग की हार के बाद लीग ने प्रोपेगेंडा मशीन चलाई, जिसमें पीरपुर रिपोर्ट एक बड़ा हथियार बनी।
पीरपुर रिपोर्ट: डर और नफ़रत की जड़
1938 की इस रिपोर्ट ने छोटे-छोटे विवादों को बढ़ा-चढ़ाकर एक संगठित हिंदू साज़िश के रूप में पेश किया।
दावे किए गए—
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मुसलमानों को नौकरियों से वंचित किया जा रहा है।
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उर्दू पर हिंदी थोपना।
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मस्जिदों के पास वंदेमातरम और बाजे बजाना।
अंग्रेज गवर्नरों ने कहा—इन दावों के कोई ठोस सबूत नहीं थे।
टू नेशन थ्योरी: वैचारिक सीमेंट
पाठ्यपुस्तकों में बार-बार यह संदेश—
“मुसलमान और हिंदू कभी एक साथ नहीं रह सकते।”
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पांचवी कक्षा की किताब: इस्लाम में जातिवाद नहीं, लेकिन हिंदू समाज बंटा हुआ।
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दसवीं की किताब: मुस्लिम धर्म, संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह अलग, इसलिए सहयोग असंभव।
जिन्ना की राजनीति और नया मदीना
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शुरुआती दौर में जिन्ना भारतीय राष्ट्रवादी थे।
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गांधी के आने के बाद उन्होंने खुद को मुस्लिम नेता और गांधी को हिंदू नेता घोषित किया।
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मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान को एक धार्मिक सपना बनाकर पेश किया—”पाकिस्तान का मतलब क्या? ला इलाहा इल्लल्लाह”।
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यह डर फैलाया गया कि हिंदू व्यापारी मुसलमानों का आर्थिक शोषण करेंगे।
बंटवारे की खून से भीगी हकीकत
पाकिस्तानी किताबों में हिंसा का ज़िक्र एकतरफ़ा है—हिंदू-सिख हमलावर, मुसलमान पीड़ित।
लेकिन असली घटनाएं दोतरफ़ा थीं—
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1946 का डायरेक्ट एक्शन डे—कोलकाता में मुस्लिम लीग समर्थकों ने हिंदुओं का कत्लेआम किया।
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नोआखाली में मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर हमले।
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बिहार और पंजाब में दोनों तरफ से बदले की हिंसा।
गायब हीरो: भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस
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पाकिस्तानी किताबों में भगत सिंह, सुभाष बोस, आज़ाद हिंद फौज का ज़िक्र तक नहीं।
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वजह: इनकी कहानियां बताती हैं कि आज़ादी सिर्फ मुसलमानों की देन नहीं थी—यह साझा संघर्ष था।
असल मकसद: एक दुश्मन बनाना
हर देश अपना नैरेटिव बनाता है। पाकिस्तान के लिए यह नैरेटिव था—“हम सही, वे गलत”।
इसी के लिए इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया, और एक स्थायी दुश्मन—भारत—तैयार किया गया।
निष्कर्ष
यह पड़ताल पाकिस्तान को नीचा दिखाने के लिए नहीं, बल्कि यह समझाने के लिए है कि इतिहास कैसे राजनीति का हथियार बन सकता है। हमें अपनी किताबों को भी उसी आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ना चाहिए, क्योंकि सच अक्सर पन्नों के बीच की खाली जगह में छिपा होता है।
FAQ – पाकिस्तान का झूठा इतिहास
Q1: पाकिस्तान में 1857 की क्रांति को कैसे पढ़ाया जाता है?
A1: वहां इसे मुसलमानों का जिहाद बताया जाता है और हिंदुओं को गद्दार बताया जाता है।
Q2: टू नेशन थ्योरी का मुख्य संदेश क्या है?
A2: यह कि हिंदू और मुसलमान एक साथ शांति से नहीं रह सकते।
Q3: क्या पाकिस्तानी किताबों में भगत सिंह का ज़िक्र है?
A3: नहीं, क्योंकि उनकी कहानी साझा संघर्ष की गवाही देती है।
Q4: पीरपुर रिपोर्ट क्या थी?
A4: 1938 में मुस्लिम लीग की बनाई रिपोर्ट, जिसमें कांग्रेस पर मुसलमानों के खिलाफ साजिश का आरोप लगाया गया।
Q5: इस झूठे इतिहास का उद्देश्य क्या था?
A5: पाकिस्तान के गठन को सही ठहराना और भारत को स्थायी दुश्मन के रूप में प्रस्तुत करना।